kajaliya festival 2025: जानिए कजलियां पर्व कब मनाया जाता है
कजलियां पर्व (kajaliya festival 2025)प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा हुआ एक पर्व है..
यह त्योहार सदियों से चल आ रहा है… बतादें कि….
जैसे हि राखी का त्योहार खत्म होता है ठीक उसके दूसरे दिन कजलियां पर्व मनाया जाता है। इस पर्व को क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग नाम से मनाया जाता है। कुछ जगह तो इसे भुजलिया या भुजरियां नाम से जाना जाता है…
बुजुर्ग किसानों का कहना है कि….
तो वहीं विंध्य क्षेत्र में इसे खजुलईंया के नाम से मनाया जाता है। कुछ बुजुर्ग किसानों का कहना है कि ये भुजरिया नई फसल का प्रतीक माना जाता है। इस साल का यह पर्व आज दिनांक 10 अगस्त 2025 दिन रविवार को मनाया जा रहा है।
कैसे होती है कजलियां पर्व की तैयारी
कजलियां पर्व के लिए श्रावण महीने की अष्टमी और नवमीं तिथि को बांस की छोटी छोटी टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेंहू, जौं के दाने बोए जाते है…

कजलियां मुख्य रूप से बुंदेलखंड,विंध्य में राखी के दूसरे दिन की जाने वाली एक परंपरा है, जिसमें नागपंचमी के दूसरे दिन खेतों में लाई गई मिट्टी को बर्तनों में भरकर उसमें गेंहू के बीजों में रक्षा बंधन के दिन तक गोबर की खाद और पानी दिया जाता है…
साथ ही उसका देखभाल भी किया जाता है।
कजलियां पर्व की विर्सजन की प्रक्रिया…
कजलियां पर्व की मान्यता राजा आल्हा ऊदल के समय से है, यह त्योहार अच्छी बारिश,अच्छी फसल और जीवन में सुख समृद्धि की कामना के लिए किया जाता है और लगभग एक सप्ताह में गेंहू के पौधे उग आते हैं जिन्हें भुजरियां कहा जाता है।
बतादें कि….
फिर रक्षा बंधन के ठीक दूसरे दिन महिलाओं द्वारा इनकी पूजा-अर्चना करके इन टोकरियों को नदियों तालाबों में विसर्जित किया जाता है,साथ ही रक्षा बंधन के दूसरे दिन कजलियां को लेकर लोग एक दूसरे के घर जाते हैं,
भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती है….
एक दूसरे के कानों में लगाकर गले लगते हैं एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं,साथ ही भोजन,नाश्ता भी करते हैं। और साथ ही बुजुर्गों का आशीर्वाद भी लिया जाता है। श्रावण मास कि पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती है,
कजलियां के दिन महिलाएं भजन-गीत गाते हुए गाजे बाजे के साथ तालाब या नदियों में कजलियां विसर्जन के लिए ले जाती हैं।
आल्हा-ऊदल और कजलियां पर्व की वीर गाथा
इस पर्व की पुरानी मान्यताओं के अनुसार आल्हा की बहन चंदा श्रावण मास में ससुराल से मायके आई तो सारे ग्रामवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था, साथ ही महोबा के सिंह सपूतों आल्हा ऊदल मलखान की वीरता की गाथाएं आज भी बुंदेलखंड की धरती पर सुनीं और समझी जाती हैं,
बताया जाता है कि….
महोबा के राजा परमाल,उनकी बिटिया राजकुमारी चंद्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर चढ़ाई कर दी थी।
वीरतापूर्ण पराक्रम
उसी समय राजकुमारी तालाब के कजली सिराने अपनी सहेलियों के साथ गई हुई थीं, राजकुमारी को पृथ्वीराज से बचाने के लिए राज्य के वीर महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान ने वीरतापूर्ण पराक्रम दिखाया था।

तब इन दो वीरों के साथ चंद्रावलि के ममेरे भाई अभई भी उरई से पहुंचे,और कीरत सागर ताल के पास हुई लड़ाई में अभई को वीरगति प्राप्त हुई,
बताया जाता है कि….
उसमें राजा परमाल का बेटा रंजीत भी शहीद हो गया था, बाद में आल्हा-ऊदल औऱ राजा परमाल के बेटे ने बड़ी वीरता से पृथ्वीराज की सेना को हराया और वहां से भागने पर मजबूर कर दिया।
इतिहासकारों के अनुसार…

कहते है कि…
महोबे की जीत के बाद पूरे बुंदेलखंड में कजलियां का त्योहार मनाया जाने लगा…
आज भी बुंदेली इतिहास में आल्हा-ऊदल का नाम बड़े ही आदर सम्मान ले लिया जाता है…
आज भी कई स्थानों पर यह त्योहार विज्योत्सव के रूप में मनाया जाता है।